Headline
तमन्ना भाटिया के प्रशंसकों को मिला तोहफा, ‘ओडेला 2’ का नया पोस्टर जारी
प्रधानमंत्री मोदी ने ‘रोजगार मेला’ के तहत 71,000 युवाओं को सौंपे नियुक्ति पत्र
सर्दियों में भूलकर भी बंद न करें फ्रिज, वरना हो सकता है भारी नुकसान, ऐसे करें इस्तेमाल
कुवैत ने पीएम मोदी को अपने सबसे बड़े सम्मान ‘द ऑर्डर ऑफ मुबारक अल कबीर’ से किया सम्मानित 
मुख्यमंत्री धामी ने 188.07 करोड़ की 74 योजनाओं का किया लोकर्पण और शिलान्यास
अब सब विपक्षी दल वापस एकजुट होने लगे
निकाय चुनाव- पर्यवेक्षकों की टीम आज पार्टी नेतृत्व को सौंपेंगे नामों के पैनल
हमारी टीम घर-घर जाकर संजीवनी योजना और महिला सम्मान योजना के लिए करेगी पंजीकरण- अरविंद केजरीवाल
चोटिल हुए भारतीय टीम के कप्तान, 26 दिसंबर से शुरु होने वाले चौथे सीरीज के मुकाबले पर छाया संकट 

न शर्म न हया : संविधान की रोज हत्या

ओमप्रकाश मेहता
भारतीय आजादी के इस हीरक वर्ष में कभी ‘विश्वगुरू’ का दर्जा प्राप्त हमारा देश अब किसी का ‘शिष्य’ बनने के काबिल भी नही रहा है, यद्यपि हमारे भाग्यविधाता सत्तारूढ़ नेता विश्वभर में जाकर अपनी खुद की प्रशंसा करते नहीं थकते, किंतु वास्तव में हमारी स्थिति उस मयूर जैसी है जो प्रगति के बादल देखकर अनवरत् नाचता है और उपलब्धि के अभाव में बाद में आंसू बहाता है।

आजादी के बाद से हमारे देश में भी राजनीति के अलग-अलग दौर रहे है, जवाहरलाल के जमाने की राजनीति प्रगति की कल्पना पर आधारित थी तो इंदिरा के जमाने से सत्ता के लिए सब कुछ करने की राजनीति का दौर शुरू हो गया और उन्होंने अपनी कुर्सी की रक्षा के लिए आपातकाल जैसा कदम उठाया, किंतु आज की राजनीति उसे भी आगे निकल गई है और आज कुर्सी के खातिर संविधान को भी बख्शा नही जा रहा है और वह सब किया जा रहा है, जिससे कुर्सी बची रहे।

लेकिन सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि आजादी के बाद से अब तक सब कुछ बदला किंतु राजनैताओं की सोच और मतदाता की समझ में कोई बदलाव नही आया, आज के राजनेता आजादी के पचहत्तर साल बाद भी चुनाव की उसी लीक पर चल रहे है जो प्रथम चुनाव के समय 1951 में देखी गई थी, आज भी राजनीति वादों और आश्वासनों पर टिकी है और आज के आम मतदाता को राजनेता उसी 1951 वाली नजर से ही देखते है और वैसा ही सलूक करते है, कभी प्रगति और विकास के नाम पर मांगे जाने वाले वोट आज धार्मिक नारों के आधार मांगें जा रहे है, सत्तापक्ष भाजपा यदि आज ‘बंटेगें तो कटेगें’ का नारा लगा रहा है तो प्रतिपक्षी दल ‘जुड़ेगे तो जीतेगें’ को अपनी जीत का माध्यम बना रहा है, यद्यपि सत्ता व प्रतिपक्ष के इन दोनों का मतलब एक ही है, किंतु दोनों का अपने नारों पर विश्वास अलग है, किंतु दोनों के नारों का लक्ष्य वही एक ”कुर्सी’’ है।

यहां सबसे दु:खद यह है कि हमारे संविधान में साफ-साफ लिखा है कि धर्म को राजनीति से बिल्कुल अलग रखेगें, किंतु आज धर्म और राजनीति का इतना समागम कर दिया है कि अब वोटरों के लिए धर्म और राजनीति दोनों को ही सही अर्थों में समझना मुश्किल हो रहा है, किंतु किया क्या जाए? आज जब सत्ता की कुर्सी ही अहम् हो गई है और उसके लिए अपना सर्वस्व लुटा देने वाली राजनीति शुरू हो गई है, तो इसके सामने सभी तर्क और प्रयास गौंण हो गए है और सबसे अधिक चिंता और खेद की बात यह है कि हमारी नई पीढ़ी या भारत के भविष्य को भी इसी तरह की राजनीति का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जो चिंताजनक है।

और आज की सबसे बड़ी चिंता व फिक्र की तो यह बात है कि सत्ता की घुरी अर्थात् देश के आम मतदाता को तो उसके भाग्य पर छोड़ दिया है और पांच साल में एक बार लुभावने नारों के साथ उसका द्वार खटखटाया जाता है और फिर उसे भगवान के भरोसे छोडक़र आज की राजनीति के भगवान आराध्य देव की तरह साल में केवल चार महीनें नही बल्कि चार साल के लिए मुंह ढंक कर गहरी निद्रा में खो जाते है, हमारे आम मतदाता अपने जीवन के हर क्षेत्र में चाहे निपुण हो गया हो, किंतु राजनीतिक सोच और राष्ट्रऊ के प्रति कर्तव्य के मामले में आज भी शून्य ही है, हमारे मान्यवर राजनेताओं ने उसे अपनी व्यक्तिगत पारिवारिक उलझनों में ऐसा उलझा कर रखा कि उसे अपने कर्तव्य, दायित्व या अधिकारों के बारे में सोचने-विचारने का वक्त ही नही दिया, वह चौबीसों घण्टें अपनी नीति जिन्दगी की सोच में ही डूबा रहता है।

इस तरह कुल मिलाकर आज की राजनीति से ‘जनसेवा’ का पूरी तरह लोप हो चुका है और वह पूरी तरह ‘स्व-सेवा’ बनकर रह गई है और देश व राष्ट्र तथा समाज के बारे में सोचने के लिए किसी के भी पास वक्त नही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back To Top